Page 33 - MAGAZINE
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कवितषा

                         गीत












                                                                    शिप्ा शमश्ा
                                                               बद्ीश कमेार ददव्य की सुपत्नी
                                                                    ु
            फि ै ि सक ू ँ उशजयािा बनकर ऐसा िुक्त गगन दो।
                           अँशधयारे शपंजरे िे,
                           कब तक प्रकाि का तोता।
                           रटे िुए जीवन की बोशझि,
                           साँस रिेगा ढोता।                   गज़ल

            बगरा दे िर गंध सुिन की ऐसा िुक्त पवन दो,
            फि ै ि सक ू ँ उशजयािा बनकर ऐसा िुक्त गगन दो।

                           साँचे िे ढिते िुए शदन,
                           रात प्रिर ये घशड़याँ ।
                           साधें सदा जनिती पिने,
                           चाँदी की ि्थकशड़याँ।
            जीवन जीने योग्य बने क ु छ ऐसा आकर््डण दो,
            फि ै ि सक ू ँ िैं उशजयािा बनकर ऐसा िुक्त गगन दो।                                रुद्ाक्ी ददव्य
                                                                                             ु
                                                                                        बद्ीश कमेार ददव्य की सुपुत्ी
                           िर तृष्णा जिरीिी िगती,
                           िर सपना भी कातर।
                           िर अंक ु र क े  ऊपर कोई,
                           आग भरा सौदागर ।
                                                              सोच कर िैं  क्या चिा ्था, आ गया शकस ििर िें,
            िशरयािी की नशदयां सूखे कभी न, वि सावन दो,                     िोग अपने भी पराए िग रिे इस ििर िें।
            फि ै ि सक ू ँ उशजयािा बनकर ऐसा िुक्त गगन दो।
                                                              खोि कर तानी िुई सब छतशरयाँ बेकार िै,
                           फि ू िों को शनवा्डशसत कर,
                           कांटे बै्‍ठे आसन पर।                           आग की बरसात िोती बंधुओं इस ििर िें ।
                           प्राणों पर दुःख का पिरा,           रिशियों क े  द्ार आकर बंद शकसने कर शदए,
                           ज्यों साँपों का चंदन पर।                       आदिी को आदिी शदखता निीं इस ििर िें।

            चंदन बने शतिक जग का साँपों को शनवा्डसन दो,        इस ििर िे चींशटयों को िारना भी पाप ्था
            फि ै ि सक ू ँ उशजयािा बनकर ऐसा िुक्त गगन दो।                  चींशटयों-सा आदिी िर रिा इस ििर िें।

                                                              िौसिों क े  बदिने की बात झू्‍ठी िो गई,

                                                                          एक िी िौसि टीका िै देर तक इस ििर िें।
                                                              व्य्थ्ड िे िी साँप िै बदनाि र्ँसने क े  शिए,
                                                                          र्ँस रिा िै आदिी को आदिी इस ििर िें।




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